माँ हम विदा हो जाते हैं, हम विजय केतु फहराने आज
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ निज शीश कटाने आज।
मलिन वेष ये आँसू कैसे, कंपित होता है क्यों गात?
वीर प्रसूति क्यों रोती है, जब लग खंग हमारे हाथ।
धरा शीघ्र ही धसक जाएगी, टूट जाएँगे न झुके तार
विश्व कांपता रह जाएगा, होगी माँ जब रण हुंकार।
नृत्य करेगी रण प्रांगण में, फिर-फिर खंग हमारी आज
अरि शिर गिराकर यही कहेंगे, भारत भूमि तुम्हारी आज।
अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथों में।
हजारों सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने हैं॥
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ निज शीश कटाने आज।
मलिन वेष ये आँसू कैसे, कंपित होता है क्यों गात?
वीर प्रसूति क्यों रोती है, जब लग खंग हमारे हाथ।
धरा शीघ्र ही धसक जाएगी, टूट जाएँगे न झुके तार
विश्व कांपता रह जाएगा, होगी माँ जब रण हुंकार।
नृत्य करेगी रण प्रांगण में, फिर-फिर खंग हमारी आज
अरि शिर गिराकर यही कहेंगे, भारत भूमि तुम्हारी आज।
अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथों में।
हजारों सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने हैं॥
नाम – चंद्रशेखर आजाद
उपनाम – आजाद’,’पण्डित जी’,’बलराज तथा ‘Quick Silver’
पिता – पण्डित सीताराम तिवारी
माता – जगरानी देवी
जन्म – 23 जुलाई 1906
जन्मस्थान – भाबरा गाँव उत्तर प्रदेश
मृत्यु – 27 फरवरी 1931
चंद्रशेखर आजाद का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के नज़दीक भाबरा गाँव के एक आदिवासी परिवार में हुआ था |आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के बदर गांव के रहने वाले थे। भीषण अकाल के चलते वे भाबरा गाँव में जा बसे। चूँकि चंद्रशेखर आजाद बचपन से ही आदिवासी बहुल क्षेत्र में रह रहे थे इस कारण से भील बच्चों के साथ खेलते खेलते उन्होंने भी कम उम्र मैं ही तीर धनुष चलना सीख लिया था|
चंद्रशेखर का नाम आजाद पड़ने का कारण और चंद्रशेखर की पहली क्रांति…..!
चंद्रशेखर का नाम आजाद पड़ने के पीछे एक बहुत ही रोचक कारण है |1921 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उस समय चंद्रशेखर सिर्फ 15 वर्ष के एक छात्र थे | लेकिन फिर भी उन्होंने गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया | जिस कारण से अंग्रेंजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था और फिर जब चंद्रशेखर को कोर्ट रूम में पेश किया गया तो जज ने उनसे उनका नाम पूछा तो चंद्रशेखर का जवाब था मेरा नाम आजाद है मेरे पिता का नाम स्वन्त्रता है एवं मेरा पता जेल है| तभी से उनका नाम आजाद पर गया | चंद्रशेखर के निर्भीक जवाब को सुनकर जज को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने चंद्रशेखर को 15 बेतें लगाने का आदेश दिया और फिर जब चंद्रशेखर को पिटा जा रहा था तो हर बेत की चोट पर उनके मुँह से भारत माता की जय के नारे निकल रहे थे | यह आजाद की पहली क्रांतिकारी घटना थी |
काकोरी कांड तथा साण्डर्स की हत्या
जंग-ए-आजादी की इसी कड़ी में 1925 में एक महत्वपूर्ण घटना घटी, जब नौ अगस्त को चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया | दरअसल इन जांबाजों ने जो खजाना लूटा, वह हिन्दुस्तानियों के ही खून पसीने की कमाई थी जिस पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था, लूटे गए धन का इस्तेमाल ये लोग क्रांतिकारी हथियार खरीदने और जंग-ए-आजादी को जारी रखने के लिए करना चाहते थे. इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी गई और इस कांड को पूरा करने मैं आजाद ने एक महत्चपूर्ण भूमिका निभाई थी | इसी तरह अंग्रेज सिपाही सांडर्स की हत्या मैं भी आजाद का ही हाथ था जिस समय भगत सिंह सान्डर्स को गोली मार कर भाग रहे थे तो एक अंग्रेज सिपाही ने उन लोगों का पीछा करना चाहा था उसकी भी हत्या चंद्रेशेखर आजाद ने ही की थी |चन्द्रशेखर आज़ाद के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। यह विस्फोट किसी को भी नुकसान पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। विस्फोट अंग्रेज़ सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किया गया था।
आजाद का आत्मबलिदान और अंग्रेजों के हाथ कभी नही आने की कसम…!
27 फरवरी 1931 को जब चंद्रशेखर आजाद नेहरू जी से आजादी के मुद्दों पर बात कर के वापस अपने घर की तरफ साईकल से लौट रहे थे तो अपने एक दोस्त सुखदेव राज से मिलने के लिए वे ईलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क के पास रुके हुए थी तभी किसी ने अंग्रेज अफसरों को आजाद के अल्फ्रेड पार्क के पास होने की सूचना दे दी | काकोरी कांड तथा सान्डर्स की हत्या मैं शामिल होने के कारण अंग्रेज उन्हें पहले से ढूंढ ही रही थी और जैसे ही उन्हें आजाद के Allahabad में होने की खबर मिली | वे लोग तुरंत ही अपनी पूरी फौज लेकर वहां पहुंच गए | अंग्रेजों को आता देख चंद्रशेखर पार्क में छूप गए,और फिर दोनों तरफ से गोलियों की बरसात शुरू हो गयी |
चंद्रशेखर आजाद के बारे में एक खास बात यह थी की वे हमेशा अपने साथ एक छोटी बंदूक रखा करते थे और उस दिन भी वो बंदूक चंद्रशेखर आजाद के पास ही थी लेकिन पूर्व से प्रायोजित नही होने के कारण Chandrasekhar azad के पास ज्यादा गोलियां नही थी | खैर शुरुआत में ही chandrashekhar azad ने अपने दोस्त को वहां से कवर करके भाग दिया था |अब चंद्रशेखर अकेले ही अंग्रेंजों का सामना कर रहे थे उन्होंने अकेले ही अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए थे | लेकिन ये लड़ाई ज्यादा देर तक नही चली अब चंद्रशेखर आजाद की गोलियां खत्म होने लगी थी |
आजाद को भी पता था की अब उनकी मौत नज़दीक आ गई है और जल्द ही वो समय भी आ गया जब chandrashekhar azad के पास सिर्फ एक ही गोली बची |आजाद को अब अपनी मौत साफ साफ दिखाई दे रही थी लेकिन वे भी ठहरे वीर योद्धा इतनी जल्दी हार कैसे मान लेते |उन्होंने तो प्रण किया हुआ था की वो अंग्रेंजों के हाथ कभी भी जिंदा नही नही आएंगे और इसी प्रण को पूरा करने के लिए चंद्रशेखर ने अंतिम गोली अपने सर में मार ली और इस दुनिया से आजाद गये |
जब आजाद ने खुद को गोली मार ली तो उनका शरीर एक पेड़ के पीछे था और अंग्रेजो में chandrashekhar azad के नाम से इतनी दहशत थी की वे लोग लगभग 2-3 घंटों तक आजाद के पास नही गए और फिर अंत में उन्होंने एक अंग्रेज सिपाही को आजाद के पास भेज जब वो सिपाही पूरी तरह आश्वस्त हो गया की आजाद की मौत हो गयी है तब जाकर दूसरे अंग्रेज अफसर आज़ाद के पास गए |
police ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये chandrashekhar azad का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की बलिदान की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आजाद की बलिदान की खबर से जबरदस्त तनाव हो गया।
शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये। अगले दिन आजाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड थी कि Allahabad की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पड़ा हो।
0 Comments